होंठो पर ख़ामोशी का साज लिए बैठा है,
आँखों में गम का सैलाब लिए बैठा है।
एक शक्स ना जाने कितने घाव लिए बैठा है।।
झूठी हँसी का ओढ़ के चादर वो बदन पर,
लोगो के बीच में मुस्कान लिए बैठा है।
एक शक्स ना जाने कितने घाव लिए बैठा है।।
सीने में छुपा के लाखो राज़ वो गहरे,
इंसानियत का वो सरोकार लिए बैठा है।
एक शक्स ना जाने कितने घाव लिए बैठा है।।
चुभ जाती है उसे भी तन्हाईयाँ अक़्सर,
देखो वो महफ़िल की जान बने बैठा है।
एक शक्स ना जाने कितने घाव लिए बैठा है।।
जो गाये ना जा सके महफ़िल में नग़में,
वो ऐसे साजों का फ़नकार हुए बैठा है।
एक शक्स ना जाने कितने घाव लिए बैठा है।।
बीता दी जिसने सदियाँ किसी की ग़म-ए-जुदाई में,
वो लोगो के दिल का मरहम-ए-हयात हुए बैठा है।
एक शक्स ना जाने कितने घाव लिए बैठा है।।
©® Shalini Gupta
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